कर्म सिद्धांत

*कर्म सिद्धांत* 
कर्म का सिद्धान्त अत्यंत कठोर है।जहां अच्छे कर्म व्यक्ति के जीवन को प्रगति की दिशा में ले जाते हैं,वहीं बुरे कर्म उसे पत्तन की ओर ले जाते हैं।
ज्योतिषशास्त्र में दशम भाव को कर्म स्थान कहा गया है।दशमेश तथा दशम भाव को तथा जन्म कुंडली,नवांश व दशमांश कुंडली को देखकर जातक के कर्मों की प्रवृति को समझा जा सकता है।
कर्मों को मुख्य चार भागों में बांटा गया है:
क)  संचित कर्म:पिछले जन्मों के कर्म जो हम इस जन्म में साथ लेकर आए हैं।
ख) प्रारब्ध: वे कर्म जिन्हें हम इसी जन्म में भोगेंगे।
ग) क्रियमाण:वर्तमान काल में किए जाने वाले कर्म।
घ) आगामी कर्म: ऐसे कर्म जिन्हें आने वाले जन्मों में किया जाना है।

श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता में कर्म के महत्व को भली भांति समझाया है कि जैसे सहस्त्रों गायों के झुंड में भी बछड़ा अपनी मां को पहचान लेता है,उसे प्रकार पूर्व जन्मों में किए गए कर्म अपने कर्ता को पहचान कर उसके पास पहुंच ही जाते हैं और कर्ता को शुभ एवम् अशुभ दोनो कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं।
इस प्रकार हमने देखा कि कर्म,कर्मफल और पुनर्जन्म का सीधा व गहरा संबंध है अत: हमें अपने कर्मों के प्रति सजग हो जाना चाहिए।